प्रस्तुत पाठ में महाकवि सूरदास जी ने पाठ-1 पद का आशय बताते हुए कृष्ण की बाल रूप का वर्णन किया है। … कृष्ण जी चिढ़ते हुए और मचलते हुए माखन खा रहे हैं क्योंकि उन्हें नींद आ रही थी। नींद के कारण उनकी आँखें लाल और भौंहें टेढ़ी हो रही थीं। वे बार-बार जम्हाई ले रहे थे, इस पाठ के सभी छंद के आशय या भावार्थ विस्तार पूर्वक बताया गया है, साथ में आप अभ्यास प्रश्न और पाठ के महत्वपूर्ण प्रश्न का भी आंसर देख सकते है ।
पाठ-1 पद का आशय या सूरदास के पद कक्षा 10 भावार्थ या सूरसागर के पद अर्थ सहित
इन सभी सवालों का हल नीचे दिया गया है –
पद सूरदास का गद्य भाग 1 आशय / भावार्थ
ऊधौ, तुम हौ अति बड़भागी।
अपरस रहत सनेह तगा तैं, नाहिन मन अनुरागी।
पुरइनि पात रहत जल भीतर, ता रस देह न दागी।
ज्यौं जला माहँ तेल गागरि, बूंद न ताकौं लागी।
प्रीति-नदी मैं पाउँ न बौरयो, दृष्टि न रूप परागी।’
सूरदास’ अबला हम भोरी, गुर चाँटी ज्यौं पागी।।
उत्तर-पाठ-1 पद का आशय का चर्चा करते हुए गोपियाँ ऊधौ पर व्यंग्य कसती हई कहती हैं- हे ऊधौ ! तुम तो बड़े भाग्यवान हो। तुम हमेशा प्रेम रूपी बंधन से दूर रहे हो। तुमने कभी प्रेम की खिंचाव को जाना नहीं है। तुम्हारा मन कभी कृष्ण के प्रेम में डूबा नहीं है। तुम तो जल में पलने वाले कमल के पत्तों के समान हो जो जल में रहकर भी उसके दाग-धब्बों से बचा रहता है।
आशय यह है कि तुमने कृष्ण के संग रहकर भी कभी उससे प्रेम नहीं किया। जिस प्रकार जल में मटकी की तेल की बूंद रहती है। वह जल में रहकर भी अपने ऊपर जल का प्रभाव नहीं आने देती, उसी प्रकार तुम भी कृष्ण के संग रहकर उससे अछूते रहे हो। तुमने कभी उसके प्रेम को अपने मन में आने नहीं दिया।
यह अच्छा ही किया कि तुमने कभी प्रेम की नदी में पाँव नहीं रखा, न ही तुम्हारी दृष्टि कृष्ण के रूप-सौंदर्य पर मुग्ध हुई। यह तो हम भोली अबला गोपियाँ हैं जो कृष्ण-प्रेम में इस प्रकार लिपट गई हैं जैसे गुड़ के साथ चींटियाँ लिपट जाती हैं।
पद सूरदास का गद्य भाग 2 आशय / भावार्थ
मन की मन ही माँझ रही।
कहिए जाइ कौन पै ऊधौ, नाहीं परत कही।
अवधि अधार आस आवन की, तन मन बिथा सही।
अब इन जोग सँदेसनि सुनि-सुनि, बिरहिनि बिरह दही।
चाहति हुती गुहारि जितहिं तैं, उत तैं धार बही।’
सूरदास’ अब धीर धरहिं क्यौं, मरजादा न लही।।
उत्तर-पाठ-1 पद का आशय वाले इस भाग में गोपियाँ स्वीकारती हैं कि उनके मन की अभिलाषाएँ मन में ही दब कर रह गईं। वे कृष्ण के समक्ष अपने प्रेम की अभिव्यक्ति नहीं कर पाईं। हमसे वह प्रेम की बात कहीं नहीं गई, पता नहीं कोई इसे कैसे कह पाता है। हम उनके आगमन की अवधि को गिन-गिनकर अपने तन-मन की व्यथा को सहती रही हैं। हम तो प्रतीक्षारत थीं।
तुमने अर्थात् उद्धव ने हमें आकर योग का संदेश सुना दिया। इसे सुन-सुनकर हम गोपियाँ विरह की आग में जली जा रही हैं। हम तो पहले से ही वियोगिनी थीं तुम्हारे योग के उपदेश ने हमें विरहाग्नि में जलाकर दग्ध कर दिया। जिस ओर हम पुकार करना चाहती थीं, उसी ओर से यह योग की धारा बहने लगी।
हम तो तुमसे अपनी व्यथा की गुहार लगाना चाहती थीं और तुमने प्रेम-धारा के स्थान पर योग-संदेश की धारा बहा दी। बताओ अब हम कैसे धैर्य धारण करें। अब हमारी कोई मर्यादा शेष नहीं रह गई है।
पद सूरदास का गद्य भाग 3 आशय / भावार्थ
हमारैं हरि हारिल की लकरी।
मन क्रम बचन नंद-नंदन उर, यह दृढ़ करि पकरी।
जागत सोवत स्वप्न दिवस-निसि, कान्ह-कान्ह जक री।
सुनत जोग लागत है ऐसौ, ज्यौं करुई ककरी।
सु तौ ब्याधि हमकौं लै आए, देखी सुनी न करी।
यह तौ ‘सूर तिनहिं लै सौंपौ, जिनके मन चकरी।।
उत्तर-गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि हमारे कृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जिस प्रकार हारिल पक्षी लकड़ी के आश्रय को नहीं छोड़ता, उसी प्रकार हम कृष्ण का आश्रय नहीं छोड़ सकतीं। हमने अपने प्रिय कृष्ण को मन-वचन-कर्म अर्थात् पूरी तरह से, पक्की तरह से पकड़ रखा है।
हमने तो सोते-जागते, दिन में रात में कृष्ण-कृष्ण की रट लगा रखी हैं अर्थात् हम तो पूरी तरह से कृष्णमय हो गई हैं। उद्धव ने गोपियों को जो योग का उपदेश दिया था उसके बारे में उनका यह कहना है कि यह योग सुनते ही कड़वी ककड़ी के समान प्रतीत होता है। इसे निगला नहीं जा सकता।
पाठ-1 पद का आशय के द्वारा कवि कहते हैं , हे उद्धव! तुम तो हमारे लिए ऐसी बीमारी ले आए हो जो हमने न तो कहीं देखी और न कहीं सुनी। इस योग की आवश्यकता तो उनको है जिनका मन चकरी के समान घूमता रहता है अतः इसे उन्हीं को सौंप दो। हम तो पहले से ही कृष्ण के प्रति एकनिष्ठ प्रेम बनाए हुए हैं। हमारा मन भ्रमित नहीं है।
पद सूरदास का गद्य भाग 4 आशय / भावार्थ
हरि हैं राजनीति पढ़ि आए।
समुझी बात कहत मधुकर के, समाचार सब पाए।
इक अति चतुर हुते पहिलैं ही, अब गुरु ग्रंथ पढ़ाए।
बढ़ी बुद्धि जानी जो उनकी, जोग-सँदेस पठाए।
ऊधौ भले लोग आगे के, पर हित डोलत धाए।
अब अपनै मन फेर पाइहैं, चलत जु हुते चुराए।
ते क्यौं अनीति करें आपुन, जे और अनीति छुड़ाए ।
राज धरम तौ यहै ‘सूर’, जो प्रजा न जाहिं सताए।।
उत्तर-गोपियाँ कहती हैं- हे उद्धव! अब कृष्ण ने राजनीति भी पढ़ ली है। भौंरे (उद्धव के बात कहते ही हम सब बात समझ गईं। हमें सभी समाचार मिल गए। एक तो कृष्ण पहले से ही बहुत चतुर थे और अब ग्रंथ भी पढ़ लिए। यह उनकी बढ़ी हुई बुद्धि का ही प्रमाण है, कि उन्होंने हमारे लिए योग का संदेश भेजा है।
आगे के लोग भी बड़े भले थे जो परहित के लिए भागे चले आए। अब हम अपने मन को फिर से पा लेंगी, जिसे किसी और (कृष्ण) ने चुरा लिया था। वे हमारे ऊपर अन्याय क्य करते हैं जिन्होंने दूसरों को अन्याय से छुड़ाया है। गोपियाँ उद्धव को राजधर्म के याद दिलाती हैं। राजधर्म यह कहता है कि प्रजा को सताया नहीं जाना चाहिए
आप इन्हें भी अवश्य पढ़ें –
1. पद– सूरदास
2. राम-लक्ष्मण-परशुराम संवाद – तुलसीदास
4. आत्मकथ्य – जयशंकर प्रसाद
5. उत्साह, अट नहीं रही है – सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला
6. (I) यह दन्तुरित मुस्कान – नागार्जुन
7. छाया मत छूना – गिरजा कुमार माथुर
9. संगतकार – मंगलेश डबराल
10 .नेता जी का चश्मा – स्वयं प्रकाश
11 . बालगोविंद भगत – रामवृक्ष बेनीपुरी
12 . लखनवी अंदाज़ – यशपाल
13. मानवीय करुणा की दिव्य चमक – सवेश्वर दयाल सक्सेना
14. एक कहानी यह भी – मन्नू भंडारी
15.स्त्री शिक्षा के विरोधी कुतर्कों का खंडन – महावीर प्रसाद द्विवेदी
16. नौबतखाने में इबादत – यतीन्द्र मिश्र
17. संस्कृति – भदंत आनंद कौसल्यायन
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