पाठ-1 माता का अँचल कृतिका शिवपूजन सहाय
माता का आंचल कृतिका हिंदी के इस ब्लॉग में आप सभी विद्यार्थियों को माता का अँचल पाठ के सभी पैराग्राफ को विस्तार पूर्वक पढ़ने के लिए मिलेगा आशा है की आप सभी विद्यार्थियों को पाठ जरूर समझ में आएगा ।तो चलिए अब शुरू करते है इस पाठ को जानना
जहाँ लड़कों का संग, तहाँ बाजे मृदंग
जहाँ बुड्ढों का संग, तहाँ खरचे का तंग
हमारे पिता तड़के उठकर, निबट-नहाकर पूजा करने बैठ जाते थे। हम बचपन से ही उनके अंग लग गए थे। माता से केवल दूध पीने तक का नाता था। इसलिए पिता के साथ ही हम भी बाहर की बैठक में ही सोया करते। वह अपने साथ ही हमें भी उठाते और साथ ही नहला-धुलाकर पूजा पर बिठा लेते। हम भभूत का तिलक लगा देने के लिए उनको दिक करने लगते थे। कुछ हँसकर, कुछ झुंझलाकर और कुछ डाँटकर वह हमारे चौड़े लिलार में त्रिपुंड कर देते थे। हमारे लिलार में भभूत खूब खुलती थी। सिर में लंबी-लंबी जटाएँ थीं। भभूत रमाने से हम खासे ‘बम-भोला’ बन जाते थे। पिता जी हमें बड़े प्यार से “भोलानाथ’ कहकर पुकारा करते। पर असल में हमारा नाम था ‘तारकेश्वरनाथ’। हम भी उनको ‘बाबू जी’ कहकर पुकारा करते और माता को ‘मइयाँ’।
लेखक का असली नाम क्या था?
माता का आंचल कृतिका हिंदी में जब बाबू जी रामायण का पाठ करते तब हम उनकी बगल में बैठे-बैठे आइने में अपना मुँह निहारा करते थे। जब वह हमारी ओर देखते तब हम कुछ लजाकर और मुसकराकर आइना नीचे रख देते थे। वह भी मुसकरा पड़ते थे। पूजा-पाठ कर चुकने के बाद वह राम-राम लिखने लगते। अपनी एक ‘रामनामा बही’ पर हज़ार राम-नाम लिखकर वह उसे पाठ करने की पोथी के साथ बाँधकर रख देते।
फिर पाँच सौ बार कागज़ के छोटे-छोटे टुकड़ों पर राम-नाम लिखकर आटे की गोलियों में लपेटते और उन गोलियों को लेकर गंगा जी की ओर चल पड़ते थे। उस समय भी हम उनके कंधे पर विराजमान रहते थे। जब वह गंगा में एक-एक आटे की गोलियाँ फेंककर मछलियों को खिलाने लगते तब भी हम उनके कंधे पर ही बैठे-बैठे हँसा करते थे। जब वह मछलियों को चारा देकर घर की ओर लोटने लगते तब बीच रास्ते में झुके हुए पेड़ों की डालों पर हमें बिठाकर झूला झुलाते थे।
माता का आंचल कृतिका में लेखक के बाबूजी किसका पाठ करते थे।
कभी-कभी बाबू जी हमसे कुश्ती भी लड़ते। वह शिथिल होकर हमारे बल को बढ़ावा देते और हम उनको पछाड़ देते थे।
यह उतान पड़ जाते और हम उनकी छाती पर चढ़ जाते थे। जब हम उनकी लंबी-लंबी मूंछे उखाड़ने लगते तब वह हँसते-हँसते
हमारे हाथों को मूंठों से छुड़ाकर उन्हें चूम लेते थे। फिर जब हमसे खट्टा और मीठा चुम्मा माँगते तब हम बारी-बारी कर अपना
बायाँ और दाहिना गाल उनके मुँह की ओर फेर देते थे। बाएँ का खट्टा चुम्मा लेकर जब वह दाहिने का मीठा चुम्मा लेने लगते
तब अपनी दाढ़ी या मूंछ हमारे कोमल गालों पर गड़ा देते थे। हम झुंझलाकर फिर उनकी मूंछे नोचने लग जाते थे। इस पर वह
बनावटी रोना रोने लगते और हम अलग खड़े-खड़े खिल-खिलाकर हँसने लग जाते थे।
बच्चे झुंझलाकर क्या करने लग जाते थे?
उनके साथ हँसते-हँसते जब हम घर आते तब उनके साथ ही हम भी चौके पर खाने बैठते थे। वह हमें अपने ही हाथ से,
फूल के एक कटोरे में गोरस और भात सानकर खिलाते थे। जब हम खाकर अफर जाते तब मइयाँ थोड़ा और खिलाने के लिए
हठ करती थी। वह बाबू जी से कहने लगती-आप तो चार-चार दाने के कौर बच्चे के मुँह में देते जाते हैं; इससे वह थोड़ा खाने
पर भी समझ लेता है कि हम बहुत खा गए; आप खिलाने का ढंग नहीं जानते-बच्चे को भर-मुँह कौर खिलाना चाहिए।
जब खाएगा बड़े-बड़े कौर,
तब पाएगा दुनिया में ठौर।
देखिए, मैं खिलाती हूँ। मरदुए क्या जाने कि बच्चों को कैसे खिलाना चाहिए, और महतारी के हाथ से खाने पर बच्चों का पेट भी
भरता है। यह कह वह थाली में दही-भात सानती और अलग-अलग तोता, मैना, कबूतर, हंस, मोर आदि के बनावटी नाम से कौर बनाकर यह कहते हुए खिलाती जाती कि जल्दी खा लो, नहीं तो उड़ जाएँगे; पर हम उन्हें इतनी जल्दी उड़ा जाते थे कि उड़ने का मौका ही नहीं मिलता था। जब हम सब बनाबटी चिड़ियों को चट कर जाते थे तब बाबू जी कहने लगते-अच्छा, अब तुम ‘राजा’ हो, जाओ खेलो। बस, हम उठकर उठलने-कूदने लगते थे। फिर रस्सी में बँधा हुआ काठ का घोड़ा लेकर नंग-धडंग बाहर गली में निकल जाते थे।
माता का आंचल कृतिका पाठ में टौर’ का क्या अर्थ है?
माता का आंचल कृतिका पाठ में जब कभी मइयाँ हमें अचानक पकड़ पाती तब हमारे लाख छटपटाने पर भी एक चुल्लू कड़वा तेल हमारे सिर पर डाल ही देती थी। हम रोने लगते और बाबू जी उस पर बिगड़ खड़े होते; पर वह हमारे सिर में तेल बोचकर हमें उबटकर ही छोड़ती थी। फिर हमारी नाभी और लिलार में काजल की बिंदी लगाकर चोटी गूंथती और उसमें फूलदार लटू बाँधकर रंगीन कुरता-टोपी पहना देती थी। हम खासे ‘कन्हैया’ बनकर बाबू जी की गोद में सिसकते-सिसकते बाहर आते थे। बाहर आते ही हमारी बाट जोहनेवाला बालकों का एक झुंड मिल जाता था। हम उन खेल के साथियों को देखते ही, सिसकना भूलकर, बाबू जी की गोद से उतर पड़ते और अपने हमजोलियों के दल में मिलकर तमाशे करने लग जाते थे।
तमाशे भी ऐसे-वैसे नहीं, तरह-तरह के नाटक! चबूतरे का एक कोना ही नाटक-घर बनता था। बाबू जी जिस छोटी चौकी
पर बैठकर नहाते थे, वही रंगमंच बनती। उसी पर सरकंडे के खंभों पर कागज़ का चंदोआ तानकर, मिठाइयों की दुकान लगाई
जाती। उसमें चिलम के खोंचे पर कपड़े के थालों में ढेले के लड्डू, पत्तों की पूरी-कचौरियाँ, गीली मिट्टी की जलेबियाँ, फूटे घड़े के
भोलानाथ किसको देखकर सिसकना भूल जाते थे? जाते थे।
टुकड़ों के बताशे आदि मिठाइयाँ सजाई जाती। ठीकरों के बटखरे और जस्ते के छोटे-छोटे टुकड़ों के पैसे बनते। हमीं लोग खरीदार और हमीं लोग दुकानदार। बाबू जी भी दो-चार गोरखपुरिए पैसे खरीद लेते थे। कुछ ही देर में मिठाई की दुकान बढ़ाकर हम लोग घरौंदा बनाते थे। धूल की मेड़ दीवार बनती और तिनकों का छप्पर। दातून के खंभे, दियासलाई की पेटियों के किवाड़, घड़े के मुँहड़े की चूल्हा-चक्की, दीए की कड़ाही और बाबू जी की पूजा वाली आचमनी कलछी बनती थी।
माता का आंचल कृतिका पाठ में पानी के घी, धूल के पिसान और बालू की चीनी से हम लोग ज्योनार तैयार करते थे। हमीं लोग ज्योनार करते और हमीं लोगों की ज्योनार बैठती थी। जब पंगत बैठ जाती थी तब बाबू जी भी धीरे-से आकर, पाँत के अंत में, जीमने के लिए बैठ जाते थे। उनको बैठते देखते ही हम लोग हँसकर और घरौंदा बिगाड़कर भाग चलते थे। वह भी हँसते-हँसते लोट-पोट हो जाते और कहने लगते-फिर कब भोज होगा भोलानाथ?
माता का आंचल कृतिका पाठ में ‘अमोले’ का क्या अर्थ है?
कभी-कभी हम लोग बरात का भी जुलूस निकालते थे। कनस्तर का तंबूरा बजता, अमोले को घिसकर शहनाई बजायी जाती,
टूटी चूहेदानी की पालकी बनती, हम समधी बनकर बकरे पर चढ़ लेते और चबूतरे के एक कोने से चलकर बरात दूसरे कोने मे
जाकर दरवाज़े लगती थी। वहाँ काठ की पटरियों से घिरे, गोबर से लिपे, आम और केले की टहनियों से सजाए हुए छोटे आँगन
में कुल्हिए का कलसा रखा रहता था। वहीं पहुँचकर बरात फिर लौट आती थी। लौटने के समय, खटोली पर लाल ओहार डालकर,
उसमें दुलहिन को चढ़ा लिया जाता था। लौट आने पर बाबू जी ज्यों ही ओहार उधारकर दुलहिन का मुख निरखने लगते, त्वों ही
हम लोग हँसकर भाग जाते।
बच्चे कौन-से मेले में जाते वे?
थोड़ी देर बाद फिर लड़कों की मंडली जुट जाती थी। इकट्ठा होते ही राय जमती कि खेती की जाए। बस, चबूतरे के छोर
पर घिरनी गड़ जाती और उसके नीचे की गली कुआँ बन जाती थी। पूँज की बटी हुई पतली रस्सी में एक चुक्कड़ बाँध गराड़ी
पर चढ़ाकर लटका दिया जाता और दो लड़के बैल बनकर ‘मोट’ खींचने लग जाते। चबूतरा खेत बनता, कंकड़ बीज और ठेगा
हल-जुआठा। बड़ी मेहनत से खेत जोते-बोए और पटाए जाते। फसल तैयार होते देर न लगती और हम फसल काट लेते
थे। काटते समय गाते थे-
ऊँच नीचे में बई कियारी, जो उपजी सो भई हमारी।
फसल को एक जगह रखकर उसे पैरों से रौंद डालते थे। कसोरे का सूप बनाकर ओसाते और मिट्टी की दीए के तराजू
पर तौलकर राशि तैयार कर देते थे। इसी बीच बाबू जी आकर पूछ बैठते थे-इस साल की खेती कैसी रही भोलानाथ?
बस, फिर क्या, हम लोग ज्यों-का-त्यों खेत-खलिहान छोड़कर हँसते हुए भाग जाते थे। कैसी मौज की खेती थी।
ऐसे-ऐसे नाटक हम लोग बराबर खेला करते थे। बटोही भी कुछ देर ठिठककर हम लोगों के तमाशे देख लेते थे।
जब कभी हम लोग ददरी के मेले में जाने वाले आदमियों का झुंड देख पाते तब कूद-कूदकर चिल्लाने लगते थे-
चलो भइयो ददरी, सातू पिसान की मोटरी।
वर्षा से बचने के लिए बच्चों ने क्या किया?
अगर किसी दूल्हे के आगे-आगे जाती हुई ओहारदार पालकी देख पाते, तब खूब ज़ोर से चिल्लाने लगते थे-
रहरी में रहरी पुरान रहरी, डोला के कनिया हमार मेहरी।
इसी पर एक बार बूढ़े वर ने हम लोगों को बड़ी दूर तक खदेड़कर टेलों से मारा था। उस खसूट-खब्बीस की सूरत आज
तक हमें याद है। न जाने किस ससुर ने वैसा जमाई ढूंढ़ निकाला था। वैसा घोड़ मुँहा आदमी हमने कभी नहीं देखा।
माता का आंचल कृतिका पाठ में आम की फसल में कभी-कभी खूब आँधी आती है। आँधी के कुछ दूर निकल जाने पर हम लोग बाग की ओर दौड़ पड़ते थे। वहाँ चुन-चुनकर घुले-पुले ‘गोपी’ आम चाबते थे। एक दिन की बात है, आँधी आई और पट पड़ गयी। आकाश काले बादलों से ढक गया। मेघ गरजने लगे। बिजली कौंधने और ठंडी हवा सनसनाने लगी। पेड़ झूमने और ज़मीन चूमने लगे। हम लोग चिल्ला उठे- एक पइसा की लाई, बाज़ार में छितराई, बरखा उधरे विलाई।
लेकिन बरखा न रुकी; और भी मूसलाधार पानी होने लगा। हम लोग पेड़ों की जड़ से धड़ से सट गए, जैसे कुत्ते के कान
में अंठई चिपक जाती है। मगर बरखा जमी नहीं, थम गई
बरखा बंद होते ही बाग में बहुत-से बिच्छू नज़र आए। हम लोग डरकर भाग चले। हम लोगों में बैजू बड़ा ढीठ था। संयोग
की बात, बीच में मूसन तिवारी मिल गए। बेचारे बूढ़े आदमी को सूझता कम था। बैजू उनको चिढ़ाकर बोला-बुढ़वा बेईमान मांगे करेला का चोखा।
हम लोगों ने भी, बैजू के सुर-में-सुर मिलाकर यही चिल्लाना शुरू किया। मूसन तिवारी ने बेतहाशा खदेड़ा। हम लोग तो
बस अपने-अपने घर की ओर आँधी हो चले।
कौन पराई पीर नहीं समझते?
जब हम लोग न मिल सके तब तिवारी जी सीधे पाठशाला में चले गए। वहाँ से हमको और बैजू को पकड़ लाने के लिए
चार लड़के ‘गिरफ्तारी वारंट’ लेकर छूटे। इधर ज्यों ही हम लोग घर पहुंचे, त्यों ही गुरु जी के सिपाही हम लोगों पर टूट पड़े। बैजू
तो नौ-दो ग्यारह हो गया; हम पकड़े गए। फिर तो गुरु जी ने हमारी खूब खबर ली।
माता का आंचल कृतिका पाठ में बाबू जी ने यह हाल सुना। वह दीड़े हुए पाठशाला में आए। गोद में उठाकर हमें पुचकारने और फुसलाने लगे। पर हम दुलारने से चुप होनेवाले लड़के नहीं थे। रोते-रोते उनका कंधा आँसुओं से तर कर दिया। वह गुरु जी की चिरौरी करके हमें घर ले चले। रास्ते में फिर हमारे साथी लड़कों का झुंड मिला। वे ज़ोर से नाचते और गाते थे- माई पकाई गरर गरर पूआ, हम खाइव पूआ, ना खेलब जुआ।
फिर क्या था, हमारा रोना-धोना भूल गया। हम हठ करके बाबू जी की गोद से उतर पड़े और लड़कों की मंडली में मिलकर
लगे वही तान-सुर अलापने। तवं तक सब लड़के सामनेवाले मकई के खेत में दौड़ पड़े। उसमें चिड़ियों का झुंड चर रहा था। वे
दौड़-दौड़कर उन्हें पकड़ने लगे, पर एक भी हाथ न आई। हम खेत से अलग ही खड़े होकर गा रहे थे-
राम जी की चिरई, रामजी का खेत, खा लो चिरई, भर-भर पेट।
हमसे कुछ दूर बाबू जी और हमारे गांव के कई आदमी खड़े होकर तमाशा देख रहे थे और यही कहकर हंसते थे कि
‘चिड़िया की जान जाए, लड़कों का खिलौना’। सचमुच ‘लड़के और बंदर पराई पीर नहीं समझते।
सांप से डरकर लेखक ने कहाँ शरण ली?
एक टीले पर जाकर लोग चूहों के में पानी उलीचने लगे।
नीचे से ऊपर पानी फेंकना था। हम सब थक गए। तब तक गणेश जी के चूहे की रक्षा के लिए शिव जी का साँप निकल
आया। रोते-चिल्लाते हम लोग बेतहाशा भाग चले!
कोई औंधा गिरा, कोई अंटाचिट। किसी का सिर फूटा, किसी के दाँत टूटे। सभी गिरते-पड़ते भागे। हमारी सारी देह
लहूलुहान हो गई। पैरों के तलवे काँटों से छलनी हो गए।
हम एक सुर से दौड़े हुए आए और घर में घुस गए। उस समय बाबू जी बैठक के ओसारे में बैठकर हुक्का गुड़गुड़ा रहे थे
उन्होंने हमें बहुत पुकारा पर उनकी अनसुनी करके हम दौड़ते हुए मइयाँ के पास ही चले गए। जाकर उसी की गोद में शरण ली
‘मइयाँ’ चावल अमनिया कर रही थी। हम उसी के आँचल में छिप गए। हमें डर से काँपते देखकर वह ज़ोर से रो पड़ी और सब काम छोड़ बैठी। अधीर होकर हमारे भय का कारण पूछने लगी। कभी हमें अंग भरकर दबाती और कभी हमारे अंगों को अपने आँचल से पोंछकर हमें चूम लेती। बड़े संकट में पड़ गई। झटपट हल्दी पीसकर हमारे घावों पर थोपी गई। घर में कुहराम मच गया। हम केवल धीमे सुर से “साँ….सौं” कहते हुए मइयों के आँचल में लुके चले जाते थे। सारा शरीर थर-थर काँप रहा था। रोंगटे खड़े हो गए थे। हम आँखें खोलना चाहते थे, पर वे खुलती न थीं।
हमारे कांपते हुए ओंठों को मइयाँ बार-बार निहारकर रोती और बड़े लाड़ से हमें गले लगा लेती थी। इसी समय बाबू जी दौड़े आए। आकर झट हमें मइयों की गोद से अपनी गोद में लेने लगे। पर हमने मइयाँ के आँचल की-प्रेम और शांति के चैदोवे की छाया न छोड़ी…।
शब्दार्थ
लिलार = ललाट। त्रिपुंड = एक प्रकार का तिलक जिसमें ललाट पर तीन आड़ी या अर्धचंद्राकार रेखाएं बनाई जाती हैं।
उतान = पीठ के बल लेटना। सानकर = मिलाना, लपेटना, गूंथना। ठौर = स्थान, अवसर। महतारी = माता। बोयकर
= सराबोर कर देना। चंदोआ = छोटा शामियाना। ज्योनार = भोज, दावत। जीमने = भोजन करना। अमोले = आम
का उगता हुआ पौधा। ओहार = परदे के लिए डाला हुआ कपड़ा। कसोरे = मिट्टी का बना छिछला कटोरा। रहरी =
अरहर। अँठई = कुत्ते के शरीर में चिपके रहने वाले छोटे कीड़े, किलनी। चिरीरी = दीनतापूर्वक की जाने वाली प्रार्थना,
विनती। ओसारे = बरामदा। अमनिया = साफ, शुद्ध