ग्रामीण जीवन एवं समाज पाठ 3 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर Ncert Solution For Class 8th के इस ब्लॉग पोस्ट में आप सभी विद्यार्थियों का स्वागत है, पोस्ट के माध्यम से सभी विद्यार्थियों को पाठ से जुड़ी अति महत्वपूर्ण परीक्षा उपयोगी सभी प्रश्नों को इस पोस्ट पर कभर किया गया है, जो आप सभी विद्यार्थियों के लिए काफी महत्वपूर्ण है, इसलिए इस पोस्ट को कृपया करके पूरा पढ़े ताकि परीक्षा की तैयारी आपकी अच्छी हो सके-
ग्रामीण जीवन एवं समाज पाठ 3 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर Ncert Solution For Class 8th
ग्रामीण जीवन एवं समाज पाठ 3 अति लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
ग्रामीण जीवन एवं समाज पाठ 3 लघु उत्तरीय प्रश्नोत्तर
ग्रामीण जीवन एवं समाज पाठ 3 दीर्घ उत्तरीय प्रश्नोत्तर
1 निज खेती व्यवस्था के तहत नील की खेती कैसे होती थी?
उत्तर-निज खेती व्यवस्था के तहत निज बागान मालिक अपनी जमीन पर नील का उत्पादन कराते थे। जमीन कम पड़ने पर वे दूसरे जमींदारों से जमीन भाड़े पर लेकर उनमें नील की
खेती मजदूरों द्वारा कराते थे।
2 बागान मालिक और किसानों के बीच होनेवाले अनुबंध में क्या शत्तें रहती थी?
उत्तर-बागान मालिक और किसानों के बीच होनेवाले अनुबंध में बागान मालिक उन्हें नील के उत्पादन के लिए कम ब्याज दर पर कर्ज देते थे। रैयतों को अपनी जमीन के एक चौथाई हिस्से में नील की खेती करनी पड़ती थी।
किसान फसल उत्पादन के बाद उसे बागान मालिक को सौंप देते थे। उसे नील की बेहद कम कीमत मिलती थी। जिसके कारण किसान कर्ज के चंगुल से नहीं निकल पाते थे।
3 रैयतवाड़ी. व्यवस्था को दक्षिण भारत में क्यों शुरू किया गया था ?
उत्तर-रैयतवाड़ी व्यवस्था को दक्षिण भारत में लागू करने का मुख्य कारण यह था कि इस इलाके में बड़े जमींदार नहीं थे। इसके तहत उपज से होनेवाली आय का लगभग आधा भाग लगान के काही रूप में वसूल किया जाता था।
मद्रास में यह व्यवस्था लगभग 30 वर्षों तक लागू रही। किसानों को इस व्यवस्था में अधिक लगान लिये जाने के विरुद्ध न्यायालय में जाने की अनुमति नहीं थी। बंबई और मद्रास में जहाँ यह व्यवस्था लागू की गई थी। वहाँ इसके बुरे परिणाम सामने आये।
लगान की राशि अधिक होने के कारण किसानों को कभी-कभी लगान चुकाने के लिए साहूकारों से कर्ज लेना पड़ता था। जिसके कारण धीरे-धीरे वे अपनी जमीन से मालिकाना हक भी खोते गये।
ग्रामीण जीवन एवं समाज पाठ 3 Ncert Notes Class 8th History
4 यूरोपीय बाजारों में भारतीय नील की माँग क्यों थी ?
उत्तर-यूरोपीय बाजारों में भारतीय नील की बहुत माँग थी। इसकी कीमत भी काफी ऊँची थी। इसका प्रमुख कारण यह था कि भारतीय नील उच्च गुणवत्तापूर्ण होता था। जिससे कपड़ों में
काफी चमक आ जाती थी। इन्हीं कारणों में यूरोपीय बाजारों में भारतीय नील की व्यापक माँग थी।
5 नील की खेती के प्रति कंपनी की दिलचस्पी क्यों बढ़ी ?
उत्तर-जब यूरोप में भारतीय नील की माँग बढ़ती गयी, ईस्ट इंडिया कंपनी की नील की खेती में दिलचस्पी बढ़ने लगी। कंपनी भारत में नील के उत्पादन को बढ़ाने के लिए मार्ग प्रशस्त करने लगी, ताकि नील के व्यापार से भारी मुनाफा कमाया जा सके।
बंगाल में उत्पादित नील उत्तम कोटि का होता था। जिसकी माँग यूरोप के बाजार में सर्वाधिक थी। 18वीं सदी के अंत तक बंगाल में नील की खेती में भारी बढ़ोत्तरी हुई। कंपनी के अफसर और व्यावसायिक एजेंट नील के व्यापार में बड़ी रकम निवेश करने लगे।
कई अफसरों ने नील के व्यापार के लिए कंपनी की नौकरी तक छोड़ दी। विदेश से भी बहुत सारे लोग भारत आकर नील के बागान लगाने में पैसे निवेश करने लगे। कंपनी वैसे लोगों को कर्ज भी मुहैया कराने लगी, जिसके पास नील की खेती के लिए पैसे नहीं होते थे।
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6 रैयत नील की खेती से क्यों कतरा रहे थे ?
उत्तर-कर्जा लेने वाले रैयत को अपनी कम-से-कम 25 प्रतिशत जमीन पर नील की खेती करनी होती थी। बीज और उपकरण बागान मालिक मुहैया कराते थे परन्तु मिट्टी तैयार करना,
बीज बोना, फसल की देखभाल करने का जिम्मा काश्तकारों के ऊपर रहता था।
कटाई के बाद फसल बागान मालिकों को सौंप दी जाती थी और रैयत को नया कर्ज पुनः मिल जाता था। पहले उन्हें यह व्यवस्था अच्छी लगती थी परन्तु बाद में कठोर सा प्रतीत होने लगा। नील की कीमत जो मिलती थी या वह बहुत कम थी। कर्जा का सिलसिला कभी खत्म नहीं होता ना था। इस कारण से रैयत नील की खेती से कतरा रहे थे।
7 महालवाड़ी व्यवस्था में खेती कैसी होती थी?
उत्तर-बंगाल प्रेजिडेंसी के उत्तर-पश्चिमी प्रांतों (इस इलाके का ज्यादातर हिस्सा अब उत्तर प्रदेश में है) के लिए होल्ट मैकेंजी नामक अंग्रेज ने एक नयी व्यवस्था तैयार की जिसे 1822 में लागू किया गया। मैकेंजी को विश्वास था कि उत्तर भारतीय समाज में गाँव एक महत्वपूर्ण सामाजिक संस्था है और उसको बचाए रखना चाहिए।
उसके आदेश पर कलेक्टरों ने गाँव-गाँव का दौरा किया, जमीन की जाँच की, खेतों को मापा और विभिन्न समूहों के रीति-रिवाजों को दर्ज किया। गाँव के एक-एक खेत के अनुमानित राजस्व को जोड़कर हर गाँव या ग्राम समूह (महाल) से वसूल होने वाले राजस्व का हिसाब लगाया जाता था। इस राजस्व को स्थायी रूप से तय नहीं किया गया बल्कि उसमें समय-समय पर संशोधनों की गुंजाइश रखी गई।
राजस्व इकट्ठा करने और उसे कंपनी को अदा करने का जिम्मा जमींदार की बजाय गाँव के मुखिया को सौंप दिया गया। गाँव का मुखिया महालदार कहलाया। इस व्यवस्था को महालवारी व्यवस्था का नाम दिया गया।
8 नील आयोग ने अपनी रिपोर्ट में क्या कहा ?
उत्तर-नील उत्पादन व्यवस्था की जाँच के लिए सीटोन कार की अध्यक्षता में चार सदस्यीय नील आयोग 1860 ई० में गठन किया गया। जिसने बागान मालिकों की स्थिति के लिए जिम्मेदार ठहराया।
अधिसूचना जारी की गयी कि किसी भी रैयत को नील की खेती के लिए बाध्य नहीं किया जाएगा और सभी विवादों का निपटारा विधिपूर्वक किया जाएगा। आयोग ने रैयतों को वर्तमान अनुबंधों को पूरा कर अगली बार अपनी इच्छा से नील की खेती बंद करने की बात कही। Jac Board