पहनावे का सामाजिक इतिहास पाठ 8 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न | Ncert Solutions For Class 9th history के इस पर सभी विद्यार्थी जो क्लास 9th में अध्ययन कर रहे है उन सभी का स्वागत है , इस पोस्ट के माध्यम से आप सभी को पाठ से जुड़ी अभ्यास प्रश्न के महत्वपूर्ण सवालों का जवाब पढ़ने को इस ब्लॉग पोस्ट पर मिलेगा इसलिए इस पोस्ट को जरूर पूरा अध्ययन करें तो चलिए शुरू करते हैं –
पहनावे का सामाजिक इतिहास पाठ 8 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न के उत्तर
पहनावे का सामाजिक इतिहास पाठ 8 दीर्घ उत्तरीय प्रश्न के उत्तर
पहनावे का सामाजिक इतिहास पाठ 8 लघु उत्तरीय प्रश्न के उत्तर
पहनावे का सामाजिक इतिहास पाठ 8 अति लघु उत्तरीय प्रश्न के उत्तर
1 अठारहवीं शताब्दी में पोशाक शैलियों और सामग्री में आए बदलावों के क्या कारण थे?
उत्तर-अठारहवीं शताब्दी में पोशाक शैलियों और सामग्री में आए बदलावों के कारण- 18वीं शताब्दी से पहले यूरोप के अधिकतर लोग क्षेत्रीय वेशभूषा धारण करते थे और उनके कपड़ों का रंग-रूप अनेक इलाके में उपलब्ध कपड़े की किस्म और कीमत से प्रायः तय होता था।
पहनावें की शैलियाँ भी स्थानीय समाज के लोगों की सामाजिक हैसियत से तय होती थीं। परन्तु 18वीं शताब्दी में उनके कारणों से पोशाक की सामग्री और शैलियों में निरन्तर परिवर्तन आता चला गया। इस बदलाव के कुछ मुख्य कारण इस प्रकार थे।
(क) इस बदलाव का पहला कारण था विश्व में उपनिवेशवाद का विस्तार और यूरोपीय शक्तियों द्वारा विश्व के अनेक देशों पर अधिकार करना। नए स्थानों और नए लोगों से मिलने के कारण दोनों जीतने वाले और बस्तियों के लोगों की पोशाक में बदलाव आना स्वाभाविक ही है।
(ख) दूसरा कारण जनवादीय क्रांतियों की सफलता के कारण प्रजातंत्रीय विचारधारा का विकास था। जिसने ऊँच-नीच का भेदभाव मिटा दिया। अब न कोई लार्ड था। न कोई उसका दास, अब सब बराबर थे। इस प्रकार पोशाक पर लगे सभी प्रकार के अंकुश स्वयं समाप्त होते चले गए। हर एक देश में एक राष्ट्रीय पहनावा लोकप्रिय होने लगा।
(ग) औद्योगिक क्रांति के कारण नए-नए रंगों और डिजाइनों के कपड़े तैयार होने लगे जिसके कारण दोनों पोशाक की शैलियाँ और सामग्री में निरन्तर परिवर्तन आता चला गया।
पहनावे का सामाजिक इतिहास पाठ 8 Ncert नोट्स Class 9th
2 उन्नीसवीं सदी के भारत में औरतें परंपरागत कपड़े क्यों पहनती थीं? जबकि पुरुष पश्चिमी कपड़े पहनने लगे थे? इससे समाज में औरतों की स्थिति के बारे में क्या पता चलता है ?
उत्तर-इस बात में कोई भी संदेह नहीं कि 19वीं सदी के भारत में औरतें परम्परागत कपड़े पहनती रही जबकि पुरुष पश्चिमी कपड़े पहनने लगे थे। इस अंतर के कुछ मुख्य कारण इस प्रकार थे-
(क) 19वीं सदी में, अधिकतर औरतें घर की चार दीवारी तक ही सुरक्षित थीं इसलिए वे अपनी परंपरागत पोशाक ही घर में पहनती रहीं।
(ख) उनकी पोशाक पहले ही काफी सादा और आरामदेह थी इसीलिये उनमें कोई तबदीली करना उन्होंने उचित नहीं समझा।
(ग) जात-पात के बन्धनों ने भी उन्हें अपनी पोशाक को बदलने से रोका।
(घ) भारतीय महिलाओं को प्रायः किसी दफ्तर आदि में नहीं जाना होता था इसीलिये दो प्रकार के कपड़े बनवाने की उन्होंने कोई आवश्यकता महसूस नहीं की। चाहे उनके पुरुषों ने दफ्तर के लिये अलग और घर के लिये अलग कपड़े बनवा रखे थे।
(ङ) भारतीय महिलाएँ अपनी निःस्वार्थ सेवा और कुर्बानी के लिए प्रसिद्ध है इसलिए उन्होंने दो प्रकार की पोशाकों पर व्यय करना उचित नहीं समझा जो अवश्य ही उनके घरेलू बजट को उलट देता।
महिलाओं के मुकाबले पुरुष अवश्य पश्चिमी कपड़े पहनने लगे थे। अंग्रेज तब तक भारत के स्वामी बन चुके थे। इसलिए भारतीयों ने उन्हें प्रसन्न करने के लिये पश्चिमी कपड़े पहनने शुरू कर दिये। कुछ के यूरोपीयों से व्यापारिक सम्बन्ध थे जिन्हें बेहतर बनाए रखने के लिये उनके जैसे वस्त्र पहनना आवश्यक हो गया।
पारसी लोग पहले भारतीय थे जिन्होंने सबसे पहले पश्चिमी ढंग के कपड़े पहनना शुरू कर दिया क्योंकि उनके अनुसार नए कपड़े आधुनिकता और प्रगति के प्रतीक थे। कुछ लोग जो ईसाई बन गए थे उन्होंने भी सहर्ष पश्चिमी कपड़े अपना लिए।
कुछ लोगों ने पश्चिमी वेशभूषा से पैदा होने वाली उलझन को अपने ही ढंग से हल कर लिया। उन्होंने दो प्रकार के कपड़े तैयार करवा लिये, दफ्तर जाते समय पश्चिमी ढंग के कपड़े और घर के लिय भारतीय ढंग के कपड़े।
पहनावे का सामाजिक इतिहास पाठ 8 Ncert Notes For Class 9th
3 भारतीय वेशभूषा पर अंग्रेजों की क्या प्रतिक्रिया हुई ? और हिंदुस्तानियों का अंग्रेजी रवैये के प्रति क्या रूख रहा?
उत्तर-अलग-अलग संस्कृतियों में किसी भी परिधान के अकसर भिन्न-भिन्न अर्थ लगाए जाते हैं। इससे कई मौकों पर गलतफहमी पैदा होती है, टकराव होते हैं। पहनावे में ब्रिटिश राज के दौरान आए बदलाव इसी टकराव का नतीजा थे।
जरा पगड़ी और टोप (हैट) को ही लें। जब शुरू-शुरू में यूरोपीय व्यापारी भारत आने लगे तो उनकी पहचान ‘हैटवालों’ की थी जबकि हिंदुस्तानियों की ‘पग्गड़वालों’ की। सिर पर धारण की जाने वाली ये दो चीजें केवल देखने में भिन्न थीं, बल्कि उनके मायने भी जुदा-जुदा थे।
भारत में पगड़ी, धूप व गर्मी से तो बचाव करती ही थी, सम्मान का प्रतीक भी थी जिसे जब चाहे उतारा नहीं जा सकता था। पश्चिमी रिवाज तो यह था कि जिन्हें आदर देना हो सिर्फ उनके सामने हैट उतारा जाए। इस सांस्कृतिक भिन्नता से गलतफहमी पैदा हुई।
ब्रिटिश अफसर जब हिंदुस्तानियों से मिलते और पगड़ी उतारते न पाते तो अपमानित महसूस करते। दूसरी तरफ बहुतेरे हिंदुस्तानी अपनी क्षेत्रीय और राष्ट्रीय अस्मिता को जताने के लिए जान-बूझकर पगड़ी पहनते। इसी तरह का टकराव जूतों को लेकर हुआ।
उन्नीसवीं सदी की शुरुआत में रिवाज था कि फिरंगी अफसर भारतीय शिष्टाचार का पालन करते हुए देसी राजाओं व नवाबों के दरबार में जूते उतारकर जाएँगे। कुछेक अंग्रेज अधिकारी
भारतीय वेशभूषा भी धारण करते थे। लेकिन 1830 में, सरकारी समारोहों पर उन्हें हिंदुस्तानी लिबास पहनकर जाने से मना कर दिया गया, ताकि गोरे मालिकों की सांस्कृतिक नाक ऊँची बनी रहे।JAC Board